संत गाडगे बाबा एक परिचय
लेखक: प्रो. छोटेलाल कनौजिया
भारत संतों की भूमि रही है। सबसे अधिक संतों ने महाराष्ट्र की भूमि पर जन्म लिया और इन्हीं संतों में एक चमकता हुआ सर्वमान्य सितारा थे संत गाडगे जी महाराज
जीवन परिचय
संत गाडगे का जन्म 23 फरवरी सन् 1876 ई. को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेंण गाँव में एक किसान धोबी परिवार में हुआ था। इनके बचपन का पूरा नाम डेबू जी झिंगरा जी जाणओरकर था| इनकी माता का नाम सखूबाई था और पिता का नाम झिंगरा जी जाणओरकर था | उस समय धोबी समाज में मांस एवं मदिरा का सेवन अत्यधिक प्रचलन में था| पिता झिंगरा जी की शराब पीने की लत (आदत) के कारण आकस्मिक निधन हो गया था। इसके बाद डेबू जी अपनी माँ सखूबाई के साथ अपने नाना हमीर राव के घर दापुरे गाँव चले गए। नाना हमीर राव एक समृद्ध किसान थे जिनके पास 65 एकड़ भूमि और बहुत सारे पशु थे। डेबू जी की माँ एक स्वाभिमानी महिला थी अतः वह मेहनत कर घर एवं खेती के कार्यों में सहयोग करने लगी। डेबू जी भी अपने मामा चंद्रभान तथा नाना के साथ खेती कार्य में हाथ बंटाने लगे।
वह अपने पशुओं को भी चराने खिलाने के लिए खेतों और वन में ले जाते थे। डेबू जी खेती के कार्य जैसे खेत जुताई, बीज बुआई, नराई, गुड़ाई, और फसल कटाई में दक्ष हो गए थे। डेबू जी को बचपन से ही गाने का शौक था अतः उन्होंने अपने चरवाहे साथियों के साथ एक कीर्तन मण्डली बनाई। वाद्ययंत्र नहीं होने पर टीन और मिट्टी के टुकड़ों को वाद्ययंत्रों के रूप में प्रयोग करते थे। गाँव में ही एक पेड़ के नीचे हनुमान मंदिर के पास यह कीर्तन मण्डली कीर्तन करती रहती थी। गाडगे बाबा शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ थे। उन्होंने शारीरिक शक्ति और तैरने की कला में निपुणता हासिल कर ली थी। वह दापुरे गाँव के निकट बहने वाली पूर्णना नदी में छलांग लगाते और तैरने का आनंद लेते थे। दूसरी ओर बाबा की सूझ-बूझ और मेहनत से कृषि की पैदावार कई गुना बढ़ गईं, अनाज के भंडार भर गए। अतः उनके नाना ने युवा डेबू का विवाह करने के लिए उनकी माँ सखूबाई से सहमति लेकर कमलापुर निवासी धना जी की बेटी कुंताबाई से 1892 में डेबू की धूम-धाम से शादी कर दी। उस जमाने में बाल विवाह की प्रथा थी। उस समय डेबू की उम्र 16 वर्ष और कुंता की उम्र 7-8 वर्ष की थी। 1899 में डेबू के यहाँ एक बिटिया ने जन्म लिया जिसका नाम आलोका बाई रखा गया था। 1900 में दूसरी कन्या कलावती का जन्म, तीसरी संतान पुत्र मुद्रल का जन्म 1901 में हुआ जिसकी अल्पायु में ही मृत्यु हो गई थी। चौथी और अंतिम संतान गोविंदा का जन्म डेबू के गृह त्याग के कुछ माह बाद 1905 में हुआ।
तात्कालिक परिस्थितियाँ
गाडगे बाबा के सामने सामाजिक परिस्थितियाँ बहुत ही विकट और भयानक थी। समाज में वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, छुआछूत, सामाजिक भेद-भाव अपने चरम पर था। सार्वजनिक स्थानों पर उनका प्रवेश वर्जित था क्योंकि सवर्ण वर्ग को उनकी परछाई से छूत लगती थी। इस के अतिरिक्त शूद्रों, अति-शूद्रों को सार्वजनिक जलाशयों से पानी लेने की भी अधिकार नहीं था। वह जलाशयों के पास खड़े होकर पानी की भीख माँगते थे और पानी न मिलने पर प्यासे रह जाते थे। सवर्णों के द्वारा भेदभाव और छुआछूत के अतिरिक्त शूद्रों में भी आपसी छुआछूत चरम पर थी। उदाहरणार्थ चमार भी धोबी के हाथ का खाना नहीं खाता था। दूसरी ओर समाज में अनेकों कुरीतियां जैसे पशुबलि, धूम्रपान, मांसपान, दहेज प्रथा, मांस भक्षण, अन्ध श्रद्धा एवं अंधविश्वास अपने रीति रिवाज और रस्मों को पूरा करने के लिए साहूकारों को अपने खेत, जमीन, मकान गिरवी रखकर ब्याज पर कर्ज लेते थे। समाज में शूद्र जातियों में शिक्षा का नितांत अभाव था। गाडगे बाबा ने अपने जीवन काल में इन सब सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव को देखा और अनुभव किया था अतः उनके अन्तर्मन में एक पीड़ा थी जिसे दूर करने के लिए और इसे कैसे दूर किया जाये के द्वंद में उलझे थे। एक दिन उन्होंने इस लक्ष्य को साधने हेतु गृह त्याग का व्रत ले लिया।
बाबा का गृह त्याग
डेबू जी की घर-गृहस्थी, धन-धान्य से परिपूर्ण थी और मन बैरागी भावनाओं से ओत-प्रोत, समस्याओं से लड़ने तथा जन सेवा के लिए तत्पर था। अतः उन्होंने घर छोड़ने का निश्चय कर लिया। उन्होंने मध्य रात्रि में सोती हुई अपनी माता सखूबाई. गर्भवती पत्नी कुंताबाई तथा दो बेटियों आलोकाबाई और कलावती बाई के चमकते चेहरों को निहारा और 29 वर्ष की आयु में फरवरी 1905 में घर त्याग कर दिया। यह उन्होंने ठीक उसी प्रकार किया जिस प्रकार भगवान बुद्ध ने 29 वर्ष की आयु में अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को निहारते हुए मध्य रात्रि में महल को त्याग कर वन गमन किया था। गृह त्याग के समय गाडगे बाबा एक फटी हुई धोती पहने हुए थे। उन्होंने तन के कपड़े उतार फेंके और इधर-उधर पड़े फटे-पुराने चिथड़ों को गाँठे बाँधकर एक चीवर बनाया और उसे पहन लिया जैसे बुद्ध चीवर पहनते थे। घर से निकलते वक्त बाबा के हाथ में एक लाठी और मिट्टी का एक कटोरे नुमा बर्तन था जिसे मराठी में गडगा कहते हैं। इसीलिए डेबू जी अब गाडगे बन गए और बाद में संत गाडगे बाबा कहलाए। सन् 1905 से 1917 तक वह गुप्त रूप से एक साधक के रूप में रहे। इन 15 वर्षों में उन्होंने अनेकों प्रकार के कष्ट सहकर अपने शरीर को परिपक्व बना लिया था। बाबा किसी बस्ती के पास से गुजरते तो उनका विचित्र भेष देखकर आवारा कुत्ते उन पर भौंकते और टूट पड़ते, अक्सर उन्हें लहूलुहान कर देते। कुत्तों के ज़ोर से भौंकने का शोर सुनकर गाँव भर के बच्चे भी इकट्ठे होकर जुट जाते। वे शोर मचाते पागल आया, पागल आया। बाबा के इस प्रकार के भेष से लोगों को भी शंका होती, और वे चोर-लुटेरा होने के भय से उन्हें भागा देते थे। मजबूर होकर उन्हें गाँवों से बाहर जंगलों में भटकना पड़ता और मौसम की मार से भी उनको जूझना पड़ता जबकि बाबा वहाँ की समस्याओं को निपटाना चाहते थे। काफी दिनों तक देखते रहने से लोग उनके आदि हो गए तथा निश्चिंत भी हो गए, लोग बाबा को पहचानने लगे और स्थिति सामान्य सी हो गई।
समाज सेवा के प्रमुख कार्य
उनके द्वारा किये गए प्रमुख सामाजिक कार्यों में कुछेक निम्न प्रकार है
स्वच्छता अभियान
गाडगे बाबा ने अपने जीवन के 50 वर्षों तक अपनी बगल में झाड़ू रखी। वह जिस भी गाँव जाते पहले वहाँ झाडू लगाना शुरू कर देते थे। यथा चलते-चलते एक बस्ती को देखा और रुक गए। कूड़े का बदबूदार ढेर देखा, बस्ती वालों को संबोधित किया कि भाईयों और बहनों देखों इस गंदगी को जिससे कई किस्म की बीमारियाँ पैदा हो सकती है। इसी गंदगी की वजह से लोग हमें नीच कहते हैं। सभी बस्ती वालों को सफाई के फायदे बताते हुए वह झाडू, फावड़े, टोकरियाँ मंगवाते कार सेवा शुरू करवाते और देखते देखते ही कूड़ा साफ हो जाता, बस्ती खिली-खिली सी स्वच्छ दिखने लगती। बाबा का यह सफाई अभियान पूरे महाराष्ट्र में चला। महाराष्ट्र सरकार ने बाबा के नाम से 2001 में संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान आरंभ किया है। इस प्रकार गाडगे बाबा स्वच्छता के जनक कहलाए।
कुरीतियों का विरोध
(अ) दहेज प्रथा के विरुद्धः संत गाडगे की दृष्टि में विवाह एक पवित्र बंधन है जिसे दहेज नामक बुराई ने कलंकित कर रखा है। बाबा दहेज रहित एवं आडंबरहीन शादी के पक्षधर थे। उन्होंने बिना दहेज के अनेकों शादियाँ करवाई।
(ब) जीव हिंसा का निषेध: गाडगे बाबा जीवन हिंसा के प्रबल विरोधी थे। गाँवों में अन्धविश्वास के चलते लोग दैवीय प्रकोप को शांत करने, मन्नत माँगने या देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि दिया करते थे। बाबा ने उदाहरणार्थ गाँव चेड़कापुर में जीव हिंसा रुकवाने के लिए जीव हिंसा की निरर्थकता से लोगों को अवगत कराया और वहीं जीव हिंसा सदैव के लिए समाप्त हो गई। इसी तरह दरियापुर गाँव में खसरा फैला था जिसे लोग देवी माता का प्रकोप मानकर बकरे की बलि देते थे। बाबा ने समझाया कि बावड़ी का गंदा पानी पीने से बीमारी फैलती है, इस तरह बाबा ने बकरे की जान बचाई।
(स) मन्नत, ओझा भगत और देवी का संचार आदि अन्ध विश्वास और अन्य श्रद्धा पर गाडगे बाबा ने प्रहार किया था। उदाहरणार्थ गाँव की औरतें बच्चे के लिए मन्नत माँगती है कि बच्चा पैदा होने पर बकरा चढ़ाऊगी। गाँव में कोई बीमार हो जाये तो ओझा भगत से झाड़-फूक कराती थी। कुछ औरतें बाल खोलकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाती हुई देवी का संचार होने का दिखावा करती हैं। गाडगे बाबा भजन कीर्तन के दौरान जनता को समझते और अन्ध विश्वास आधारित कुरीतियों को मिटाने का प्रचार करते थे।
परमार्थ के निर्माण कार्य
संत गाडगे बाबा निःस्वार्थ परमार्थ सेवा भाव की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने बेघर, बिना आश्रय, मुसाफिर, सड़कों पर पड़े रात गुजारने वालों के लिए लगभग 25 धर्मशालाओं का निर्माण कराया जिन में से प्रमुख धर्मशालाएँ हैं उदाहरणार्थ मुंबई में जे.जे. अस्पताल धर्मशाला (भायखला), संत गाडगे महाराज दादर धर्मशाला, संत गाडगे महाराज परेल धर्मशाला, तीन परीट धर्मशाला, पंधरपुर, आलंदी जिला पूना, एवं ऋणमोचन में बनवाई। चोखा मेला धर्मशाला पंढरपुर में 1920 में एक लाख रुपयों की लागत से बनवाया।
गाडगे बाबा ने इस चोखा मेला धर्मशाला को बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को विद्यार्थियों के छात्रावास के उद्देश्य से समर्पित कर दिया था। गाडगे बाबा ने निराश्रय वृद्धों के लिए पंढरपुर में बलगाँव जिला अमरावती एवं डहि गाँव जिला बुलढाना में वृद्धाश्रम बनवाये। गाडगे बाबा ने बूढ़े एवं अपाहिज पशुओं के लिए अनेकों गौरक्षण केंद्र और गौशालाएँ बनवाई। उदाहरणार्थ गाडगे महाराज गौशाला मूर्तिजापुर (अकोला), गौशाला संस्था, मोरगाँव, जीव दया संस्था बरबन्डी (अहमदनगर) आदि। बाबा ने जनता के लिए नदियों पर घाट, प्याऊ, आदिवासी आश्रमशाला, अन्धपंगु सदावर्त, कुंए बाबड़ी, संस्कार केंद्र, मुदायिक विकास केंद्र आदि निर्माण कराये। बाबा ने अंधे एवं अपाहिजों के लिए अन्न छत्र और अन्नदान केंद्र चालू किये।
शिक्षा को महत्त्व एवं प्रोत्साहन
संत गाडगे महाराज पूर्णरूप निरिक्षर थे क्योंकि वह अपनी समाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों के कारण नहीं पढ़ पाये। परंतु उन्हें शिक्षा के महत्व का पूर्ण ज्ञान था, तभी उन्होंने कहा कि अगर पैसे की तंगी है तो खाने के बर्तन बेच दो पर अपने बच्चों को शिक्षा दिलाएँ बिना मत रहो। शिक्षा के ही उद्देश्य से बाबा ने पंढरपुर की चोखा मेला धर्म शाला बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को भेंट कर दी थी। गाडगे बाबा ने शिक्षा के प्रसार हेतु ही अनेकों विद्यालयों का निर्माण करवाया जैसे कि गाडगे महाराज विद्यालय, मूर्तिजापुर, गाडगे बाबा विद्यालय, ओतर (जिला पूना) आदि बाबा ने अनेकों छात्रावास, अनाथ, आदिवसी बच्चों के लिए छात्रावास, आश्रमशाला और पुस्तकालय बनवाये।
गाडगे बाबा का व्यक्तित्व
संत गाडगे बाबा एक घुमक्कड़-फक्कड़ फकीर थे। हृदय से पवित्र लोभ रहित, माया मोह से दूर थे। उनके विचार में ईश्वर प्रत्येक जगह में बसता है अतः मानव सेवा दरिद्र नारायण की सेवा है। गाडगे बाबा ने अपने जीवन काल में लगभग 54 संस्थाओं की स्थापना की। उन्होंने फरवरी 1952 को गाडगे महाराज मिशन नाम की एक केंद्रीय संस्था की स्थापना की जो इन संस्थाओं की देख रेख एवं संचालन करती है। उन्होंने अपने द्वारा स्थापित किसी भी ट्रस्ट में अपने परिवार के किसी भी सदस्य को नहीं रखा और न ही कोई आर्थिक लाभ दिया। बाबा अपने कीर्तन भजन देवकी नन्दन गोपाला के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को दूर करने में इतने व्यस्त थे वह अपनी माँ और बेटे गोविंदा की मृत्यु पर भी नहीं गए। बाबा को मधुमय रोग हो गया था। 80 वर्ष की आयु में अमरावती जाते हुए 20 दिसम्बर 1956 को पेढ़ी नदी के पुल पर रात्रि में बाबा ने अंतिम साँस ली। प्राण त्यागने से पहले उन्होंने साथ के लोगों से कहा कि मेरी कोई मूर्ति, मंदिर या स्मारक न बनाई जाये, मेरा काम ही मेरा स्मारक है। बाबा की अंतिम शोभा यात्रा में लगभग दो लाख लोग शामिल हुए। अमरावती में राठौर बाग में उनकी समाधि है जिसे गाडगे नगर कहते है। गाडगे बाबा के कीर्तन में हजारों की भीड़ जुटती थी और उनके कार्यों से प्रभावित होकर उनसे मिलने बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर, बी. जी. खेर, के.सी. ठकारे आदि जैसे लोग आते थे। बाबा की प्रशंसा करने वालों में मदर टेरेसा, पंडित जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर, पंजावराव देशमुख, मदन मोहन मालवीय, राष्ट्र संत तुकडो जी महाराज, भाऊराव पाटिल, फिल्मकार वी. शांताराम, आदि। पत्रकार बसंत शिरोडकर ने बाबा की आत्मकथा A Wandering Saint लिखी और कहा कि वे अपने आप में एक चमत्कार थे। पत्रकार डॉ. पी. के. अत्रे ने कहा गिरे हुए और अनाथ लोगों के लिए संत गाडगे भगवान के साक्षात अवतार थे सन् 1983 में महाराष्ट्र सरकार ने संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा भारत सरकार ने 1998 में बाबा की 42 वीं पुण्यतिथि पर उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
संत गाडगे बाबा के अनमोल वचन
• भूखे को अन्न दो
• प्यासे को पानी पिलाओ
• निर्वस्त्र को कपड़े दो
• गरीब बच्चों को शिक्षा दो
• बेघरों को आश्रय दो
• पशु-पक्षियों की सुरक्षा करो
• निराश और दुखी जनों की हिम्मत बढ़ाओ
• रोगियों का उपचार कराओ